मैं नदियों मे नाव चलाता,
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मैं नदियों मे नाव चलाता,
खुद खातिर फुटपाथ बनाता,
और मुस्काता गीत सुनाता,
लहरों की हर एक हिलोरों,
से मिलकर मैं ताल बनाता,
जीवन की इस ध्रुवित दिशा में,
सूरज से मैं बैर निभाता,
चीर के सीना दरिया का,
मैं नदियों की सदियाँ दुहराता,
मैं ही हूँ जो डाल- डाल पर,
चिड़ियों के घोषले बचाता,
अचल तेज की गरिमा लेकर,
बचपन की यादें मगवाता,
दिल करता है बचपन मे,
जो स्वार्थहीन बचकानी बाते,
लगा के बोली खरीद लाता।
बरस बरस कर झर बैठी जो,
छप्पर को कान्धा लगवाता,
देश प्रेम की वेदी पर जो,
लगा दिए नि:स्वार्थ प्राण,
मैं उनके बच्चों की खातिर,
एक गाँव नया सा बनवाता ।
जो आँखें आज थकी हारी हैं,
उनके ज़ख्मों को सहलाता,
अब खत्म हो रही मानवता का,
पाठ नया मैं सिखलाता।
जल पड़े हंदय के छालों पर,
अमृत बोली मैं बरसाता,
मैं खड़ा हुआ हूँ मानवता के,
सबसे ऊँची चोटी पर
पर आज निगाहें धुधलीं सी बन,
नज़र नहीं कुछ भी आता,
इस दमन काल की बेला में,
मैं फिर भी हिम्मत बँधवाता,
बूढ़ी होती हड्डियों में फिर
मैं बचपन के हूँ अलख जगाता,
जो भीग- भीग के भसक चुकी,
दीवार में गारे लगवाता,
दूर हवाओं के झोकों संग,
नई परम्परा ले आता,
मैं गुज़र चुके उन पथिकों से,
हूँ बार-बार बस नज़र चुराता,
जिसके खातिर तृण सूखे थे,
कि फसल नई जो पनपेगी,
उससे भूखों को अन्न मिले,
आराम मिले हर जन-जन को,
मैं आज यहाँ पर ही फिर से,
उस नई फसल को लगवाता,
मैं रंग-बिरंगे चित्रों की,
क्यारियाँ सजाता बनवाता,
मैं फटे पुराने कैलेन्डर में,
दु:ख के दिवस को चढ़वाता,
मैं तोड़ बन्धनों को धरती पर,
नये राह की खोज कराता,
मैं समय की जीवन धारा मे,
सच करता हूँ और करवाता।
जुगेश कुमार गुप्ता,