कुछ भी तो नहीं पता चलता
कि तपन से जल रहे हैं लोग
कि ठण्ड से काँप रहे हैं;
कि हवा में कितना जहर घुला है,
और कितनी साँसे धुएँ की कालिख से
स्याह हो रहीं हैं
काँच के पार तो आँसू भी कड़कती धूप से
चमक बिखेरते हैं
लोग मायूस बैठे हैं, कि बिलबिला रहे हैं भूख से
चेहरे पे उत्तेजना जोश की है
या अनगिनत परेशानियों से उपजे तनाव की
कुछ भी तो नहीं पता चलता कांच के पार।
सड़क किनारे एक ढाबे पर
जो आदमी कल लुढ़क पड़ा था
लोहे की उस ठंडी बेंच पर,
वो अभी ज़िन्दा है, कि मर गया
ये बड़े बड़े जुगनू सिर्फ सड़क किनारे ही जलते हैं
कि दूर अँधेरे से ढके उन गाँवों में भी
जो भूतों के खँडहर से मालूम पड़ते हैं
और जहाँ पगडण्डीयाँ खो सी जाती हैं,
घरों के घने अंधेरों के भीतर न जाने कहाँ
कुछ भी तो नहीं पता चलता काँच के पार
ढाबे किनारे केतली धोते उस बच्चे के गाल
मासूमियत से लाल हैं या उसके मालिक की हैवानियत से
जिसके थप्पड़ों से तंग आकर,
उसने अपना बचपन मार डाला
और पथरीली निगाहों से घिसता रहा
ऐल्युमिनिअम की वो केतली
जो उसके अँधेरे भविष्य की तरह न जाने कब उजली होगी
कुछ भी तो नहीं पता चलता कांच के पार
फूटपाथ पे जलते वो चूल्हे कितने निवाले बना लेते होंगे रोज़
जो बुझ जाते हैं गाड़ियों के धुएँ की घुटन से
और मिचमिचाती हुई कुछ तंग आँखें अपनी फूँक से जिन्हें ज़िन्दा करने की कोशिश में लगी होती हैं
वो चूल्हे इतना खून पीकर कितनों का पेट भरते होंगे
कुछ भी तो नहीं पता चलता कांच के पार
जब डामर से पटी जमीन पर,
रबर के टायरों पर लुढ़कते टिन के डिब्बे के भीतर
एसी की ठण्ड भरी हवा से बोझिल दो आँखें
जाने अनजाने झाँक लेती हैं,
काँच के पार.......
आशिष मिश्र